Sunday 15 June 2014

न बदमाश - न लुच्चा

अक्सर चंचल और शोख बच्चों को बदमाश कह दिया जाता है। बहुत सारे कारणों से बच्चे बदमाश नहीं हो सकते। बदमाश फारसी भाषा का शब्द है जो दो अलग-अलग शब्दों से मिलकर बना है 'बद' और 'मआश' (या माश)। बद का अर्थ है खराब या बुरा। यह शब्द बहुत से शब्दों के पहले लगता है जैसे जिसकी नीयत खराब हो वह बदनीयत, जिसका चाल-चलन खराब हो वह बदकार और जिसकी किस्मत खराब हो वह बदकिस्मत आदि। माश या मआश का अर्थ है आजीविका या रोजी-रोटी का साधन। अक्सर मिलने पर काम-धन्धे के बारे में पूछ लिया जाता है कि 'आपका जरिया-ए-मआश क्या है?' लिहाजा बदमाश का अर्थ वह आदमी है जो ग़लत या अनैतिक तरीकों से आजीविका चलाता हो। इस लिहाज से छोटे और मासूम बच्चे कभी बदमाश हो ही नहीं सकते। बदमाश उन्हें भी नहीं कहा सकता जो लड़कियां छेड़ते हैं, या स्कूल-कॉलेज में हुड़दंग करते हैं।
इसके साथ ही 'बदमाशी' करने वाले बच्चों को शैतान भी कहते हैं। देखा जाता है कि अक्सर मां-बाप अपने साल-छह महीने के बच्चों की शरारतों से तंग आकर शिकायत करते हैं- 'आजकल यह बहुत शैतान हो गया है...'  इस्लाम के अनुसार शैतान एक फरिश्ता ही था जिसने अल्लाह की आज्ञा का उल्लंघन किया, इस वजह से उसका बहिष्कार किया गया, तब से वह लोगों को पाप करने की ओर प्रवृत्त करता है। यानी सभी बुरे काम और पाप करवाना शैतान का काम है, जिसके लिए शब्द है कार-ए-शैतानी जो बाद में बिगड़कर कारस्तानी बन गया। सार यह कि भगवान के समकक्ष ताकत रखने वाली कोई दूसरी शक्ति जो इंसान से भगवान की इच्छा के विरुद्ध पाप करवाती है। इसके बाद भी क्या बच्चे शैतान हैं? क्या उनकी मासूम सी जिद्द और नादानियां शैतानी हैं?
अब इसी रौशनी में कारस्तानी को भी ही देख लें। उर्दू का शब्दकोश तो इसे शामिल ही नहीं करता पर हिन्दी में इसका अर्थ है, साजिश या चालबाजी। जोकि सही नहीं है क्योंकि कार-ए-शैतानी को एकसाथ करने से कारस्तानी बन ही नहीं सकता और अर्थ के लिहाज से भी यह मूल अर्थ से कोसों दूर है।
बदमाश का एक और रिस्तेदार शब्द है- लुच्चा। यथा लुच्चा-बदमाश। अर्थ के लिहाज से इन दोनों शब्दों का कोई मेल नहीं है, क्योंकि लुच्चे का अर्थ शब्दकोश के अनुसार है- बदमाश, शोहदा, कमीना, दुराचारी है पर आम बोलचाल में लुच्चे का अर्थ लिया जाता है- गंदी और अश्लील बातें या इशारे करने वाला। राजस्थानी भाषा में तो अक्सर अश्लील बातें करने वाले के बारे में कहा जाता है- यह बहुत लुच्ची-लुच्ची बातें करता है...। जबकि यह दोनों ही अर्थ ग़लत हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार लुच्चा शब्द संस्कृत के लोचन शब्द से बना है। यानी लोचन से काम लेने वाला, औरतों को देखने या घूरने वाला हो गया लुच्चा। अंग्रेजी में इस हरकत को स्टेअर (Stare) कहते हैं लेकिन लुच्चे के संदर्भ में सही शब्द है ओगॅल (Ogle)। असल में यह तुर्की भाषा के शब्द लुच से बना है जिसका अर्थ है- नंगा, लम्पट और भैंगा। हिन्दूस्तान में आकर लोचन और भैंगा पास-पास हो गए तो नया शब्द बना लुचपना और लुचपना करने वाला लुच्चा।

Saturday 14 June 2014

धणी खम्मा - घणी खम्मा

राजस्थान में अभिवादन के लिए बहुत ही प्रचलित वाक्य है- खम्मा घणी। इसके जवाब में सामने वाला भी घणी घणी खम्मा कह देता है। इसकी देखा-देखी आजकल टीवी सीरिअल और फिल्मों में अभिवादन के लिए घणी खम्मा का प्रयोग किया जाता है जिसका जवाब सलामुन आलैकुम की तर्ज पर वालेकुम अस्सलाम यानी खम्मा घणी दिया जाता है। यह सीरिअल और फिल्मों में तो अज्ञानता की वजह से चल सकता है पर आश्चर्य तब होता है जब पढ़े लिखे लोग भी घणी खम्मा कह कर अभिवादन करते देखे-सुने जा सकते हैं। इतना ही नहीं रामदेव जी के बहुत सारे भजनों में ये शब्द बार-बार इन्हीं अर्थों में आते हैं। हद तो तब हो जाती है जब लोग अपने वाहनों पर बिना इसका अर्थ जाने यह लिखकर घूमते हैं- ''बाबै नै घणी घणी खम्मा"
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि यह कितना गलत इस्तेमाल है। दरअसल देवनागरी में 'ध' और 'घ' दिखने में लगभग एक जैसे हैं इसलिए अकसर लोग धोखा खा जाते हैं। यही वजह है कि राजस्थानी के शब्द धणी (मालिक, पति) को घणी (ज्यादा, बहुत) पढ़ते और बोलते हैं। इस अज्ञानता की वजह से आजकल पढ़े-लिखे लोग भी कमअक्ली कर बैठते हैं।
इसके सही इस्तेमाल है 'धणी खम्मा' या 'खम्मा धणी'। मूलतः यह दो शब्दों से मिलकर बना है। पहला शब्द है धणी जिसका अर्थ है मालिक या पति, और दूसरा शब्द है खम्मा जिसका अर्थ है क्षमा। दरअसल खम्मा क्षमा का ही अपभ्रंस है जो क्षेत्रीय भाषाओं में आकर क्षमा से खमा या खम्मा बन गया, ठीक वैसे ही जैसे क्षेत्र से खेत और क्षत्री से खत्री बने हैं। कुल शब्द का मतलब है मालिक क्षमा करें। इसके लिए अंग्रेजी का एक वाक्य एक्सक्यूज मी बिलकुल सटीक बैठता है। अदब और सभ्यता के लिहाज से कुछ भी कहने से पहले या किसी बातचीत के बीच में बोलने से पहले एक्सक्यूज मी, माफ़ कीजिए या क्षमा करें जैसे वाक्य बोले जाते हैं। राजस्थान में आज भी बड़े रसूख वाले लोगों, मंत्रियों और अधिकारियों को हुकुम, धणी या मायत कहने का चलन है। जैसे मुगलिया दरबारों में कुछ भी कहने से पहले पूछा जाता था कि- 'जान की अमान पाऊँ तो अर्ज करूँ...।' ठीक इसी तरह राजपूताना में भी राजा-महाराजाओं के दरबार में कुछ बोलने से पहले 'धणी खम्मा या खम्मा धणी' से बात आरम्भ करते थे।
इन अर्थों की रौशनी में 'बाबै नै घणी घणी खम्मा' कितना हास्यस्पद  लगता है? किसी को प्रणाम या नमस्कार के लिए भी घणी खम्मा का प्रयोग कितना उचित है? अब पता नहीं कब और कैसे यह वाक्य अभिवादन में बदल गया।
अभिवादन के लिए एक और शब्द है 'मुजरा'। अरबी भाषा के इस शब्द का हिन्दी फिल्मों ने बहुत बेड़ा गर्क किया है। जिसकी वजह से हमने इसका एक ही अर्थ समझा है- कोठों पर तवायफों द्वारा किए जाने वाले नाच-गाने को मुजरा कहते हैं। दरअसल झुककर अभिवादन को ही मुजरा कहा जाता है, राजस्थानी भाषा में यह शब्द आज भी इसी संदर्भ में इस्तेमाल होता है। इस पर राजस्थानी में बहुत से गाने भी प्रचलित हैं। इस शब्द के तवायफों से जुडऩे का कारण आसानी से समझा जा सकता है। एक जमाना था जब बड़े-बड़े नवाब और राजा-महाराजा अपने बच्चों को तमीज, तहजीब और आदाब सिखाने के लिए तवायफों के यहां भेजते थे। तवायफें आदाब और तौर-तरीके सिखाती और नाच-गाने से पहले लगभग दोहरा होने की हद तक झुककर सलाम करती थी। यह सलाम या अभिवाद ही मुजरा है, जिसकी वजह से उनके नाच-गाने को मुजरा समझ लिया गया।
मुजरे का एक अर्थ और भी है- किसी को दिए जाने वाले धन में से कटौती करना। राजस्थान, पंजाब और हरियाणा के वो लोग जो खेती हिस्से या ठेके पर करवाते हैं वे इसे आसानी से समझ लेंगे क्योंकि उनका वास्ता मुजारे से पड़ा है। अपनी खेती को उपज के आधे, चौथाई या पांचवें हिस्से पर ठेके दिया जाना यहां आम बात है। जो आदमी इस तरह जमीन लेता है उसके बदले जो धन देता है उसमें से मुजरा काट कर जमीन मालिक को देता है उसे इसीलिए मुजारा भी कहते हैं। आम लोग नें इसे भी मजदूर को बिगड़ा हुआ रूप मजूर माना और फिर मुजारा मान लिया।

Friday 13 June 2014

जुगाड़ की भाषा या भाषा का जुगाड़

भाषा के मामले में दुनिया का हर आदमी जुगाड़ी है। वह शब्दों का जुगाड़ मुख-सुख के लिए ढूंढ ही लेता है। जैसे बहुत से पंजाबी अदरक को अदकर कहते हैं, कीचड़ को चिक्कड़ और चाकू को काचू बोलते हैं। इसी तरह उत्तरप्रदेश के बहुत लोग लखनऊ को नखलऊ कहते सुने जा सकते हैं। जब बात जुगाड़ की आ गई है तो बात करते हैं वर्कशॉप और वाहनों से संबंधित उन शब्दों की जिनके जुगाड़ मुख-सुख की वजह से तलाश लिए गए हैं।
इंजन नम्बर और चेसिस नम्बर के बारे में हम सबने सुना रखा है। उच्चारण व लिखने की दृष्टि से इंजन को एÓन्जिन बोला और लिखा जाना चाहिए पर आजकल इंजन या इंजिन हमें स्वीकार हो गया है। दूसरा शब्द है चेसिस। जिसे कुछ लोग चैसी या चेसिज या चेचिस भी कहते हैं। इस शब्द का सही उच्चरण है शैसे या शैस्इ। यह शब्द बोलने और लिखने दोनों के लिहाज से आजकल नजर ही नहीं आता। जब वर्कशॉप खुली हुई है तो कुछ और शब्दों पर भी बात भी कर लेते हैं। एक औजार है-जैक। यह वह औजार है जिससे वाहनों के टायर आदि बदलने के लिए वाहन को उपर उठाया जाता है। हम लोग इसे बहुत ही जल्दी में जेक बोलते हैं। जबकि इसे धीरे से खींचकर जैअ्क बोलना चाहिए। एक ही स्पैंलिग के साथ इस जैक के बहुत सारे अर्थ हैं जैसे- नाविक, मल्लाह, मजदूर, नौकर, गुर्गा, लौंडा, गुलाम, छोटा झंडा और कटहल आदि। ताश में भी जो गुलाम होता उसे भी जैक ही कहते हैं।
एक और बहुत ही प्रचलित शब्द है टोचन। यह स्टील, जूट या पलास्टिक की रस्सी होती है जिसकी मदद से एक खराब वाहन को दूसरे वाहन से बांध कर खींचकर ले जाया जाता है। सही शब्द है टो-चेन या टोइंग चेन। यह दो शब्दों से मिलकर बना है। टो यानी खींचना चेन यानी धातु की रस्सी। अब यह स्त्रीलिंग टो-चेन कब पुल्ंिलग टोचन हो गया पता ही नहीं लगा। हम में से बहुत से लोग टोचन को अंग्रेजी का शब्द नहीं मानकर जुगाड़ की तरह का एक जुगाड़ी शब्द ही समझते हैं। ऐसा समझने के पीछे एक तर्क भी है। हमारे मिस्त्री बहुत से औजारों और पुर्जों का नाम उनकी शक्ल देखकर रखते हैं। ये लोग रिचेट को कुत्ता, टेपेट को चिड़ी, इगनीशिअन कॉयल को घुग्गी, ओपनएंड स्पेनर को चाबी, सॉकेट को गोटी, प्लायर्स को जमूरा और नोज प्लायर्स को चूहा प्लास कहते हैं। हद यह कि साइकिल के गिअर टीथ खराब होने पर हम कहते हैं- इसके कुत्ते फेल हो गए। अब तो यह एक मुहावरा बन चुका है, कमजोर, आलसी और बड़बोले लोगों के लिए इसे अकसर प्रयोग में लाया जाता है।
अंत में बात करते दो और शब्दों की, पहला है बबलिंग। आमतौर पर कोई वाहन अगर उछल-उछल कर चल रहा हो या उसका टायर डगमगा रहा हो तो उसे बबलिंग कहते हैं। इसका सही उच्चारण है बोबलिंग या वैंबलिंग। दूसरा शब्द है-जैनुअन। जिसे हम जैनियन या जीनाइन भी कहते हैं। ऐसा नहीं है कि हम विदेशी भाषाओं के साथ ही ऐसा व्यवहार करते हैं, हम आपनी मातृ भाषा की भी इतनी ही इज्जत करते हैं।

Saturday 5 April 2014

कहां है जंगलराज?

जंगलराज आजकल एक ऐसा शब्द बन गया है जो दिन में दस बार सामने आता है। आम मान्यता के अनुसार जहां कानून-कायदे नाम की कोई चीज न हो उसे जंगलराज कहते हैं और सभ्य समाज में जो हरकतें स्वीकार नहीं हैं, उन्हें पाश्विकता कहते हैं। अब इससे बड़ा झूठ कोई दूसरा नहीं हो सकता। इसे समझने से पहले जंगल के कानून को समझना जरूरी है। जंगल में सबसे ताकतवर शेर को माना गया है। शेर ने अपनी इस ताकत के बल पर आज तक किसी शेरनी, बकरी, गाय या लोमड़ी से बलात्कार नहीं किया। उसने कभी भी अपनी भूख से ज्यादा शिकार नहीं किया। एक बार पेट भरने के बाद शेर अपने ऊपर खेलते हुए बकरी के बच्चे को छूता तक नहीं है। शेर ने कभी किसी दूसरे जानवर को सिर्फ इसलिए नहीं मारा कि वो किसी और प्रजाति का है। उसने हर बार सिर्फ भूख लगने पर ही किसी जानवर को मारा है। अब दूसरे जानवरों की बात करें तो कमोबेश यही नियम उनका भी है।
अब अगर बात करें शारीरिक सम्बंधों और बलात्कार की तो जंगल में यह शारीरिक संबंध केवल सन्तान उत्पत्ति के बनाए जाता हैं, वह भी तब, जब मादा इसके लिए तैयार हो और आमंत्रित करे। वहां आनन्द और मौजमेले के लिए शारीरिक संबंधों की कोई जगह नहीं है। कुछ जीव तो ऐसे भी हैं जो अपने जीवनकाल में केवल एक ही बार ये संबंध बनाते हैं। अब यह कहां तक जायज है कि हम बलात्कारियों और अति-कामुक लोगों को हवस का भूखा भेडिय़ा कहते हैं?
कोई भी जानवर जंगल को खाली देखकर उस पर कब्जा नहीं करता। जमाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी नहीं करता, हत्ता के वो साथी जानवरों को इंसान के नाम पर गंदी और अश्लील गालियां भी नहीं निकालता। जबकि हम बात-बेबात अपने ही बच्चों को जंगली, गधा, उल्लू का पट्ठा, कुत्ता, सुअर और जाने क्या-क्या कहते हैं। जानवरों ने कभी यह दावा भी नहीं किया कि वो ईश्वर की श्रेष्ठ कृति हैं और न ही ऐसा कोई काम किया जिससे सारी जानवर जाति का सिर शर्म से झुक जाए। जानवरों ने हमेशा वही काम किया जिसके लिए प्रकृति ने उनको पैदा किया। जानवरों को कायदे-कानून में रखने के लिए न तो पुलिस है न ही सेना, न अदालत है, न जेल और न ही फांसी की सजा।
इंसान की महानता देखिए कि सारी गंदगी और ग़लाज़त उसके अपने दिमाग में है और बदनाम बेचारे निरीह जानवरों को करता है। इंसान अपनी हर घटिया हरकत को जानवरों जैसा व्यवहार और पाश्विक कहकर अपना पल्ला झाड़ लेता है। जानवरों ने आज तक जितने इंसान मारे हैं वो या तो आत्मरक्षा के लिए या मजबूरी में भूख लगने पर मारे हैं। लेकिन इंसान ने जानवरों और इंसानों को क्यों मारा है यह आप-हम सभी जानते हैं। अब फैसला आप पर है कि आज के बाद जंगलराज को आप किस संदर्भ में प्रयोग करेंगे।

Friday 4 April 2014

वहशी, हैवान, दरिंदा

एक जमाने पहले जो भाषा लुगदी जासूसी उपन्यासों की हुआ करती थी, वह आजकल हमारे अख़बारों और टीवी चैनल्ज की है। आज भाषा हमारे लिए महज सम्प्रेषण का माध्यम भर है, शब्दों का सही अर्थ जानने का तरीका नहीं। इसलिए हम जाने-अनजाने शब्दों का गलत-सही प्रयोग करते रहते हैं। दिल्ली और मुंबई बलात्कार कांड के बाद लगभग हर रोज पढऩे सुनने को जो तीन शब्द मिले वे थे- वहशी, दरिंदा और हैवान।
इन शब्दों के अर्थ देखें तो हैरानी होगी कि जिन अर्थों में इन्हें प्रयोग किया जा रहा है, वे इनके अर्थ हैं ही नहीं। आमतौर पर वहशी का अर्थ उस खतरनाक किस्म के पागल से लिया जाता है, जो इंसानों को चीर-फाड़ दे और उनका खून तक पी जाए। जबकि शब्दकोष के अनुसार वहशी उस जानवर को कहते हैं जो आदमी या दूसरे जानवरों से डरता हो और उन्हें देखते ही घबरा कर भाग जाए। इस श्रेणी में हिरण, खरगोश और नीलगाय जैसे जानवर आते हैं। इसलिए भीड़-भाड़ से होने वाली घबराहट को वहशत कहा जाता है।
दूसरा शब्द है दरिंदा। इस शब्द को भी हम वहशी की ही श्रेणी में ही रखते हैं। यानी चीरने-फाडऩे वाला खूंखार जानवर। हम इस शब्द के साथ कई बार वहशी का प्रयोग भी करते हैं। वहशी का अर्थ जानने के बाद किसी को भी वहशी-दरिंदा नहीं कहा जा सकता। जानते हैं कि दरिंदा किसे कहते हैं। सभी मांस खाने वाले जानवर दरिंदे कहलाते हैं। हर भाषा में जानवरों को उनकी आदतों या रहने के तरीकों के अनुसार नाम दिए जाते हैं, जैसे हिन्दीभाषी पानी में रहने वालों को जलचर, उडऩे वालों को नभचर और जमीन रहने वालों को थलचर कहते हैं। इसी तरह फारसी में उडऩे वालों को परिंद:, चरने वालों को चरिंद:, तथा मांस खाने वालों को दरिंद: कहा जाता है। इस तरह कुत्ते, बिल्ले जैसे सभी मांसभक्षी दरिंदे हैं।
तीसरा शब्द है हैवान। इस शब्द का तुक चूँकि शैतान से मिलता है इसलिए हमारी नजर में हैवान निर्दयी, ख़तरनाक और बेहद ताकतवर किस्म का विचित्र प्राणी है। जबकि शब्दकोश के अनुसार सभी पशुओं, चौपायों, जानवरों यहां तक कि हर जानदार जो इंसान नहीं है को हैवान कहा जाता है, तथा उनके व्यवहार को हैवानियत।
इन अर्थों की रौशनी में बलात्कारियों, हत्यारों और निर्दयी लोगों को हैवान, दरिंदा या वहशी कहना कितना सही है? दूसरी ओर इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि कोई भी जानवर कभी किसी से बलात्कार नहीं करता। वह अपनी ही प्रजाति की मादा की तरफ भी तब देखता है, जब प्रजनन काल हो। कोई भी जानवर अपने या किसी दूसरे जानवर के छोटे बच्चों के साथ कभी जबरदस्ती नहीं करता। शुक्र करना चाहिए कि जानवर हमारी इस बकवास को समझ नहीं सकते, वरना इस वाहियात सोच के लिए वे अब तक हमें चीर-फाड़ चुके होते। दरअसल आदमी से ज्यादा बेहतर, संवेदनशील और तरक्कीपसंद होने के साथ-साथ घटिया, ग़लीज़ और कमीना कोई दूसरा प्राणी इस पृथ्वी पर है ही नहीं। अपने आपको ईश्वर की श्रेष्ठ कृति बताने वाला यह प्राणी अपनी घटिया हरकतों को पाश्विक या जानवरों जैसा व्यवहार कहने में बिलकुल भी संकोच नहीं करता।

Thursday 3 April 2014

शब्दों के बारे में दो शब्द

मैं यह लेख किसी भाषा विज्ञानी की हैसियत से नहीं लिख रहा हूं, मैं भी भाषा का एक साधारण सा छात्र हूं जो उत्सुकतावश बंजारे शब्दों के साथ भाषा के इस जंगल में आ गया हूं। इस आवारगी में जो कुछ भी मिल रहा है उसे ही साझा करने का प्रयास कर रहा हूं। इस सफर को आरम्भ करने से पहले कुछ छोटी-छोटी बातें जो इस बंजारगी में शायद सहायक हों।
दुनिया की सभी भाषाएं शब्दों से ही बनी हैं और प्राचीनकाल से ही शब्द इंसानों के साथ-साथ यात्रा करते रहे हैं। यही वजह है कि इंसान आते-जाते रहे हैं मगर उनके कुछ शब्द हमेशा के लिए हमारे बीच रह जाते हैं। ये शब्द स्थानीय भाषाओं में इस तरह घुल-मिल जाते हैं कि इन्हें बोलने वाले भी अपना ही मान लेते हैं। हमारी हिन्दी भी एक ऐसी ही भाषा है जिसमें दुनिया भर की दूसरी भाषाओं के हजारों शब्द मिल जाएंगे जिन्हें हम चाहकर भी अलग नहीं कर सकते। हिंदी भाषा में लगभग 2500 अरबी, 3500 फारसी और 3000 अंग्रेजी के अलावा तुर्की, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, युनानी, चीनी, जापानी और रूसी जैसी विदेशी भाषाओं के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं के असंख्य शब्द शामिल हैं।
उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के चार भेद हैं- तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी। तत्सम वे शब्द हैं जो संस्कृत से हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन आए हैं जैसे- अग्नि, क्षेत्र, वायु, रात्रि, सूर्य आदि। तद्भव वे शब्द हैं जो रूप बदलने के बाद संस्कृत से हिन्दी में आए हैं जैसे- आग(अग्नि), खेत(क्षेत्र), रात(रात्रि), सूरज(सूर्य) आदि। तथा देशज उन शब्दों को कहते हैं जो क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बने और प्रचलित हो गए जैसे- पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट आदि। विदेशी या विदेशज वे शब्द हैं जो विदेशी जातियों के संपर्क से हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं। जैसे- स्कूल, अनार, आम, कैंची, अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि। कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनके लिए या तो हिन्दी में शब्द हैं ही नहीं या उनकी जगह काम आने वाले हिन्दी शब्द चलन से लगभग बाहर हो चुके हैं। जैसे अंग्रेजी के पैन-पैंसिल, रेडिओ-टीवी, डॉक्टर-नर्स, बस, रेल, टिकट, मशीन, सिगरेट और साइकिल आदि।
अरबी और फारसी के शब्दों को तो पहचाना ही मुश्किल है क्योंकि हम बचपन से अ-अनार पढ़ते आ रहे हैं। हालांकि हम चश्मे को ऐनक पढ़ते रहे हैं पर कहते आज भी चश्मा ही हैं। अब जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, औलाद, अमीर, ग़रीब, क़त्ल, कानून,  क़त्ल क़ैदी, रिश्वत, औरत, फ़क़ीर आदि हजारों शब्द हैं जिन्हें पहचानना लगभग असंभव है। अब तुर्की के शब्द ही लें- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा या फिर पुर्तगाली के- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, बाल्टी, फीता, साबुन, तंबाकू जिनके पर्यायवाची ढूंढने में उम्र निकल जाएगी।
मेरा मक़सद किसी को भी भाषा का विद्वान बनाना नहीं बल्कि उनके सही स्वरूप से परिचित करना और करवाना और उनकी उत्पत्ति के बारे में कुछ बातें करना भर है। जो शब्द हमारे बीच रच-बस गए हैं उन्हें बदलना या निकालना अब संभव नहीं हैं, फिर भी शब्दों का बंजारापन जारी है वे अपने लाव-लश्कर के साथ हमेशा आगे बढ़ते ही रहते हैं।