Saturday 5 April 2014

कहां है जंगलराज?

जंगलराज आजकल एक ऐसा शब्द बन गया है जो दिन में दस बार सामने आता है। आम मान्यता के अनुसार जहां कानून-कायदे नाम की कोई चीज न हो उसे जंगलराज कहते हैं और सभ्य समाज में जो हरकतें स्वीकार नहीं हैं, उन्हें पाश्विकता कहते हैं। अब इससे बड़ा झूठ कोई दूसरा नहीं हो सकता। इसे समझने से पहले जंगल के कानून को समझना जरूरी है। जंगल में सबसे ताकतवर शेर को माना गया है। शेर ने अपनी इस ताकत के बल पर आज तक किसी शेरनी, बकरी, गाय या लोमड़ी से बलात्कार नहीं किया। उसने कभी भी अपनी भूख से ज्यादा शिकार नहीं किया। एक बार पेट भरने के बाद शेर अपने ऊपर खेलते हुए बकरी के बच्चे को छूता तक नहीं है। शेर ने कभी किसी दूसरे जानवर को सिर्फ इसलिए नहीं मारा कि वो किसी और प्रजाति का है। उसने हर बार सिर्फ भूख लगने पर ही किसी जानवर को मारा है। अब दूसरे जानवरों की बात करें तो कमोबेश यही नियम उनका भी है।
अब अगर बात करें शारीरिक सम्बंधों और बलात्कार की तो जंगल में यह शारीरिक संबंध केवल सन्तान उत्पत्ति के बनाए जाता हैं, वह भी तब, जब मादा इसके लिए तैयार हो और आमंत्रित करे। वहां आनन्द और मौजमेले के लिए शारीरिक संबंधों की कोई जगह नहीं है। कुछ जीव तो ऐसे भी हैं जो अपने जीवनकाल में केवल एक ही बार ये संबंध बनाते हैं। अब यह कहां तक जायज है कि हम बलात्कारियों और अति-कामुक लोगों को हवस का भूखा भेडिय़ा कहते हैं?
कोई भी जानवर जंगल को खाली देखकर उस पर कब्जा नहीं करता। जमाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी नहीं करता, हत्ता के वो साथी जानवरों को इंसान के नाम पर गंदी और अश्लील गालियां भी नहीं निकालता। जबकि हम बात-बेबात अपने ही बच्चों को जंगली, गधा, उल्लू का पट्ठा, कुत्ता, सुअर और जाने क्या-क्या कहते हैं। जानवरों ने कभी यह दावा भी नहीं किया कि वो ईश्वर की श्रेष्ठ कृति हैं और न ही ऐसा कोई काम किया जिससे सारी जानवर जाति का सिर शर्म से झुक जाए। जानवरों ने हमेशा वही काम किया जिसके लिए प्रकृति ने उनको पैदा किया। जानवरों को कायदे-कानून में रखने के लिए न तो पुलिस है न ही सेना, न अदालत है, न जेल और न ही फांसी की सजा।
इंसान की महानता देखिए कि सारी गंदगी और ग़लाज़त उसके अपने दिमाग में है और बदनाम बेचारे निरीह जानवरों को करता है। इंसान अपनी हर घटिया हरकत को जानवरों जैसा व्यवहार और पाश्विक कहकर अपना पल्ला झाड़ लेता है। जानवरों ने आज तक जितने इंसान मारे हैं वो या तो आत्मरक्षा के लिए या मजबूरी में भूख लगने पर मारे हैं। लेकिन इंसान ने जानवरों और इंसानों को क्यों मारा है यह आप-हम सभी जानते हैं। अब फैसला आप पर है कि आज के बाद जंगलराज को आप किस संदर्भ में प्रयोग करेंगे।

Friday 4 April 2014

वहशी, हैवान, दरिंदा

एक जमाने पहले जो भाषा लुगदी जासूसी उपन्यासों की हुआ करती थी, वह आजकल हमारे अख़बारों और टीवी चैनल्ज की है। आज भाषा हमारे लिए महज सम्प्रेषण का माध्यम भर है, शब्दों का सही अर्थ जानने का तरीका नहीं। इसलिए हम जाने-अनजाने शब्दों का गलत-सही प्रयोग करते रहते हैं। दिल्ली और मुंबई बलात्कार कांड के बाद लगभग हर रोज पढऩे सुनने को जो तीन शब्द मिले वे थे- वहशी, दरिंदा और हैवान।
इन शब्दों के अर्थ देखें तो हैरानी होगी कि जिन अर्थों में इन्हें प्रयोग किया जा रहा है, वे इनके अर्थ हैं ही नहीं। आमतौर पर वहशी का अर्थ उस खतरनाक किस्म के पागल से लिया जाता है, जो इंसानों को चीर-फाड़ दे और उनका खून तक पी जाए। जबकि शब्दकोष के अनुसार वहशी उस जानवर को कहते हैं जो आदमी या दूसरे जानवरों से डरता हो और उन्हें देखते ही घबरा कर भाग जाए। इस श्रेणी में हिरण, खरगोश और नीलगाय जैसे जानवर आते हैं। इसलिए भीड़-भाड़ से होने वाली घबराहट को वहशत कहा जाता है।
दूसरा शब्द है दरिंदा। इस शब्द को भी हम वहशी की ही श्रेणी में ही रखते हैं। यानी चीरने-फाडऩे वाला खूंखार जानवर। हम इस शब्द के साथ कई बार वहशी का प्रयोग भी करते हैं। वहशी का अर्थ जानने के बाद किसी को भी वहशी-दरिंदा नहीं कहा जा सकता। जानते हैं कि दरिंदा किसे कहते हैं। सभी मांस खाने वाले जानवर दरिंदे कहलाते हैं। हर भाषा में जानवरों को उनकी आदतों या रहने के तरीकों के अनुसार नाम दिए जाते हैं, जैसे हिन्दीभाषी पानी में रहने वालों को जलचर, उडऩे वालों को नभचर और जमीन रहने वालों को थलचर कहते हैं। इसी तरह फारसी में उडऩे वालों को परिंद:, चरने वालों को चरिंद:, तथा मांस खाने वालों को दरिंद: कहा जाता है। इस तरह कुत्ते, बिल्ले जैसे सभी मांसभक्षी दरिंदे हैं।
तीसरा शब्द है हैवान। इस शब्द का तुक चूँकि शैतान से मिलता है इसलिए हमारी नजर में हैवान निर्दयी, ख़तरनाक और बेहद ताकतवर किस्म का विचित्र प्राणी है। जबकि शब्दकोश के अनुसार सभी पशुओं, चौपायों, जानवरों यहां तक कि हर जानदार जो इंसान नहीं है को हैवान कहा जाता है, तथा उनके व्यवहार को हैवानियत।
इन अर्थों की रौशनी में बलात्कारियों, हत्यारों और निर्दयी लोगों को हैवान, दरिंदा या वहशी कहना कितना सही है? दूसरी ओर इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि कोई भी जानवर कभी किसी से बलात्कार नहीं करता। वह अपनी ही प्रजाति की मादा की तरफ भी तब देखता है, जब प्रजनन काल हो। कोई भी जानवर अपने या किसी दूसरे जानवर के छोटे बच्चों के साथ कभी जबरदस्ती नहीं करता। शुक्र करना चाहिए कि जानवर हमारी इस बकवास को समझ नहीं सकते, वरना इस वाहियात सोच के लिए वे अब तक हमें चीर-फाड़ चुके होते। दरअसल आदमी से ज्यादा बेहतर, संवेदनशील और तरक्कीपसंद होने के साथ-साथ घटिया, ग़लीज़ और कमीना कोई दूसरा प्राणी इस पृथ्वी पर है ही नहीं। अपने आपको ईश्वर की श्रेष्ठ कृति बताने वाला यह प्राणी अपनी घटिया हरकतों को पाश्विक या जानवरों जैसा व्यवहार कहने में बिलकुल भी संकोच नहीं करता।

Thursday 3 April 2014

शब्दों के बारे में दो शब्द

मैं यह लेख किसी भाषा विज्ञानी की हैसियत से नहीं लिख रहा हूं, मैं भी भाषा का एक साधारण सा छात्र हूं जो उत्सुकतावश बंजारे शब्दों के साथ भाषा के इस जंगल में आ गया हूं। इस आवारगी में जो कुछ भी मिल रहा है उसे ही साझा करने का प्रयास कर रहा हूं। इस सफर को आरम्भ करने से पहले कुछ छोटी-छोटी बातें जो इस बंजारगी में शायद सहायक हों।
दुनिया की सभी भाषाएं शब्दों से ही बनी हैं और प्राचीनकाल से ही शब्द इंसानों के साथ-साथ यात्रा करते रहे हैं। यही वजह है कि इंसान आते-जाते रहे हैं मगर उनके कुछ शब्द हमेशा के लिए हमारे बीच रह जाते हैं। ये शब्द स्थानीय भाषाओं में इस तरह घुल-मिल जाते हैं कि इन्हें बोलने वाले भी अपना ही मान लेते हैं। हमारी हिन्दी भी एक ऐसी ही भाषा है जिसमें दुनिया भर की दूसरी भाषाओं के हजारों शब्द मिल जाएंगे जिन्हें हम चाहकर भी अलग नहीं कर सकते। हिंदी भाषा में लगभग 2500 अरबी, 3500 फारसी और 3000 अंग्रेजी के अलावा तुर्की, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, युनानी, चीनी, जापानी और रूसी जैसी विदेशी भाषाओं के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं के असंख्य शब्द शामिल हैं।
उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के चार भेद हैं- तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी। तत्सम वे शब्द हैं जो संस्कृत से हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन आए हैं जैसे- अग्नि, क्षेत्र, वायु, रात्रि, सूर्य आदि। तद्भव वे शब्द हैं जो रूप बदलने के बाद संस्कृत से हिन्दी में आए हैं जैसे- आग(अग्नि), खेत(क्षेत्र), रात(रात्रि), सूरज(सूर्य) आदि। तथा देशज उन शब्दों को कहते हैं जो क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बने और प्रचलित हो गए जैसे- पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट आदि। विदेशी या विदेशज वे शब्द हैं जो विदेशी जातियों के संपर्क से हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं। जैसे- स्कूल, अनार, आम, कैंची, अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि। कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनके लिए या तो हिन्दी में शब्द हैं ही नहीं या उनकी जगह काम आने वाले हिन्दी शब्द चलन से लगभग बाहर हो चुके हैं। जैसे अंग्रेजी के पैन-पैंसिल, रेडिओ-टीवी, डॉक्टर-नर्स, बस, रेल, टिकट, मशीन, सिगरेट और साइकिल आदि।
अरबी और फारसी के शब्दों को तो पहचाना ही मुश्किल है क्योंकि हम बचपन से अ-अनार पढ़ते आ रहे हैं। हालांकि हम चश्मे को ऐनक पढ़ते रहे हैं पर कहते आज भी चश्मा ही हैं। अब जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, औलाद, अमीर, ग़रीब, क़त्ल, कानून,  क़त्ल क़ैदी, रिश्वत, औरत, फ़क़ीर आदि हजारों शब्द हैं जिन्हें पहचानना लगभग असंभव है। अब तुर्की के शब्द ही लें- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा या फिर पुर्तगाली के- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, बाल्टी, फीता, साबुन, तंबाकू जिनके पर्यायवाची ढूंढने में उम्र निकल जाएगी।
मेरा मक़सद किसी को भी भाषा का विद्वान बनाना नहीं बल्कि उनके सही स्वरूप से परिचित करना और करवाना और उनकी उत्पत्ति के बारे में कुछ बातें करना भर है। जो शब्द हमारे बीच रच-बस गए हैं उन्हें बदलना या निकालना अब संभव नहीं हैं, फिर भी शब्दों का बंजारापन जारी है वे अपने लाव-लश्कर के साथ हमेशा आगे बढ़ते ही रहते हैं।